Saturday 21 April 2018

एक अंश -धरा का
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मैं ...
मैं जनित
हम...
और इसी हम से
आवर्तन
परावर्तन ,करके
बहुत आहत हुई
मैं ........
बड़ी -बड़ी शिलाएं
तम की ,
बाँध मुझ पर
दबा दिया इतना
कि मैं ,
मैं ना रही .....
बन गयी,
ऊसर ...
जो थी कभी
उपजाऊ ..
होती थी
प्रेम वृष्टि
लहलहाती थी ,
फसलें ...
हाँ --तब थी
तृप्ति ,भूख की ...
और आज ,
आज है सृष्टि ,
भूख की ..
बस
यही तो है आवर्तन ,
मन का -
जो आज काट मुझको
खा गए तुम ,
मैं ......आज
मैं ना रही ,
गल के खाक हो रही
मगर क्या ..?
इस तरह
तुम भी ना खो जाओगे ,
अन्ततः
दूँढोगे
एक पग
धरा का ' मनस्वी '
ना पाकर
खाक हो जाओगे ......' मनस्वी '
मीनाक्षी कपूर मीनू ।सर्वाधिकार सुरक्षित है ।

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