Monday 30 April 2012

खामोश दास्ताँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,





कब तक यूँ सिसक-सिसक कर हम जियें जायेंगे
जिंदगी के ज़हर को यूँ पियें जायेंगे
कहना चाहेंगे बहुत कुछ पर कह न पाएंगे
दिल ही दिल में हम रोते रह जायेंगे
तोड़ेंगे गर खामोंशी तो रुसवा हो जायेंगे
न तोड़ पाए तो घुट के मर जायेंगे
अब करें भी तो करें क्या हम ऐ दोस्त .....
ख़ामोशी की जुबां को आप भी समझ न पाएंगे
बहुत सह चुके है मनस्वी ,अब सह न पाएंगे
लगता है इस कशमकश से अब हम टूट जायेंगे
जुबां खामोश है आँखें भी खामोश हो जायेंगी
देखते ही देखते ये जिंदगी चली जायेगी
लब खामोश है पर आँखें कह रही है ऐ दोस्त ..........
क्या आप भी मेरी ख़ामोशी तोड़ नहीं पाएंगे !!!!!!!!!!!!!















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2 comments:





  1. आदरणीया मनस्वी जी
    सस्नेहाभिवादन !

    क्या आप भी मेरी ख़ामोशी तोड़ नहीं पाएंगे ! भावुकता में बह कर लिखी गई रचना है …
    भावुकता बुरी बात तो नहीं , लेकिन निराशा से बचने के अवसर अवश्य तलाशने चाहिए … … …


    ख़ूबसूरत ब्लॉग है आपका ! यह कविता भी अच्छी है , पहली पोस्ट पर लगी कविता और भी अच्छी है !
    और श्रेष्ठ सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं !


    मंगलकामनाओं सहित…

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. राजेन्द्र जी ..देरी के लिए माफ़ी ..समयाभाव के कारण..आपने ठीक कहा भावुकता में बह कर ,,,लेकिन कई बार न जाने क्यूँ मानव चाहते हुए भी इस से बच नहीं पाता..आपको ब्लॉग अच्छा लगा ,,बहुत बहुत धन्यवाद ..आगे भी मार्गदर्शन करते रहे ..अच्छा लगेगा ,,,

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